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Thursday, 28 March, 2024
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मठों, पारिवारिक शिवालयों और संतों की कहानियों में रचा-बसा है वाराणसी का मिनी-तमिलनाडु

पीएम मोदी के हाल ही में बीएचयू में काशी तमिल संगमम का उद्घाटन करने के बाद से वाराणसी और तमिलनाडु के बीच का सदियों पुराना सांस्कृतिक संबंध लोगों के बीच फिर से चर्चा में आने लगा है.

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वाराणसी: ‘विशाल गंगा के रेत के कणों को गिनें – इतने सारे इंद्र, केवल एक ही अंतहीन ईश्वर है!…,’ ये शब्द 7वीं-8वीं शताब्दी के तीन महान शैव तमिल कवियों में से एक अप्पार के थे.

आदि शंकराचार्य के समय से ही शिव के ‘सुख साधन रहित आनंद’ की तलाश में काशी पहुंचने वाले शैव तमिलों की एक सतत धारा रही है. फिलहाल इस समुदाय ने हनुमान, केदार और हरिश्चंद्र घाटों के कुछ हिस्सों को कवर करते हुए काशी के बीचो-बीच एक मिनी-तमिलनाडु बनाया हुआ है.

वाराणसी आने वाले तमिल लोगों के लिए शिव और गंगा का स्थायी आकर्षण धर्म, कर्नाटक संगीत और तमिल-संस्कृत इतिहास से कहीं अधिक गहरा है. तमिलनाडु और वाराणसी के बीच सांस्कृतिक संबंध सदियों पुराना है, लेकिन जब से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 19 नवंबर को बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में महीने भर चलने वाले काशी तमिल संगमम का उद्घाटन किया, यह न सिर्फ मिनी-तमिलनाडु के लोगों की जुबान पर है बल्कि शहर के कई हिंदू मंदिरों में भी चर्चा में है.

काशी-तमिल संघ के सचिव वी.एस. सुब्रमण्यम मणि कांची शंकराचार्य मठ के प्रभारी भी हैं और काशी के हनुमान घाट में कांची कामकोटि मंदिर की देखभाल करते हैं. उन्होंने बताया, ‘भगवान विश्वेश्वर, मां गंगा और देवी विशालाक्षी हजारों सालों से तमिलों को काशी खींच कर लाती रही हैं. आदि शंकराचार्य के काशी आने और अद्वैत उपदेश देने के बाद से बहुत सारे तमिल संतों का काशी की तरफ झुकाव हुआ जो आज भी जारी है’.


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काशी में कुमारगुरुपरार और तमिल पुजारी

आदि शंकराचार्य के बाद काशी में अगर किसी तमिल संत के आगमन की बात करें तो शायद पहला रिकॉर्ड शैव तपस्वी कुमारगुरुपरार की प्रसिद्ध कहानी ‘शेर पर संत’ में मिलता है. कुमारगुरुपरार जिन्होंने मुगल राजकुमार दारा शिकोह से जमीन मांगी थी और यहां 1600 के दशक में कुमारस्वामी मठ की स्थापना की थी. यह मठ आज भी मौजूद है और केदार घाट पर केदारेश्वर मंदिर का प्रबंधन करता है.

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प्रसिद्ध तमिल कवि और स्वतंत्रता सेनानी सुब्रह्मण्यम भारती के रिश्तेदार माने जाने वाले स्वामी सोमस्कंदन ने अपनी किताब शंकरज्योति (2004) में लिखा है कि आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित कांची कामकोटि पीठ के आचार्य प्राचीन काल में पूरे भारत में घूमे थे.

मणि ने कहा, ‘पुस्तक में जिक्र है कि 1600 के दशक में जब कुमारगुरुरपारर काशी पहुंचे, तो वे बादशाह से मिलना चाहते थे. उन्होंने सहिष्णु राजकुमार दारा शिकोह से मुलाकात की और उन्हें काफी प्रभावित किया था. उन्होंने वहीं मठ की स्थापना के लिए काशी में जमीन मांगी थी.’

कुछ किताबों में उल्लेख है कि कुमारगुरुपरार शक्ति के प्रतीक के रूप में राजकुमार से मिलने के लिए एक शेर पर सवार होकर गए थे.

उन्होंने लिखा था, ‘लेकिन हिंदू तमिल संतों की इनमें से बहुत सी यात्राओं का सिलसिला मुस्लिम शासन की स्थापना के बाद थम गया था.’

‘शंकरज्योति’ में 1934 और 1974 में तमिल संतों चंद्रशेखरेंद्र सरस्वती और जयेंद्र सरस्वती के आगमन का भी जिक्र है. सरस्वती पूर्व काशी कामकोटि पीठ के 68वें शंकराचार्य थे, जबकि सरस्वती 69वें शंकराचार्य थे. उनकी यात्राओं से काशी और कांची के संतों के बीच विचारों का काफी अधिक आदान-प्रदान हुआ था.

सोमस्कंदन लिखते हैं, ‘अब, काशी और कांची के बीच संबंध गहरा हो गया था.’ उन्होंने आगे कहा है कि तमिल समुदाय के कई सदस्य और संत अब काशी में रहते हैं. 1970 और 2000 के दशक की शुरुआत के बीच, पीठ के प्रयासों से देशभर में कई मंदिर, अस्पताल और स्कूल खोले गए हैं.

संतों का आगमन और 150 मंदिर व मठ

समय के साथ वाराणसी में तमिल के धार्मिक संस्थानों की स्थापना सांस्कृतिक आदान-प्रदान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बना रहा है. यह मठ और मंदिर तमिल तीर्थयात्रियों को शहर की ओर खींचते हैं. इसके अलावा मृत व्यक्तियों के परिवारों द्वारा किए जाने वाले अनुष्ठानों ने भी इस आवाजाही को सुगम बनाया है.

कुमारगुरुपरार के आने के बाद द्रविड़ संतों और राजाओं ने सैकड़ों मंदिरों का निर्माण कराया था. उन्होंने मठों की स्थापना भी की थी. कांची शंकराचार्य मठ (तमिलनाडु के कांची कामकोटि पीठ की एक शाखा) के साथ-साथ श्री काशी नट्टुकोट्टई नागर छत्रम की भी स्थापना की गई थी.

केदार घाट पर मौजूद केदारेश्वर मंदिर द्रविड़ शैली का सबसे पुराना मंदिर है, जिसे कुमारगुरुपरार ने पुनर्निर्मित किया था. उन्होंने कुमारस्वामी मठ की स्थापना भी की थी, जो आज भी मंदिर की देखभाल में लगा है.

मणि ने कहा कि मौजूदा समय में द्रविड़ संतों द्वारा बनाए गए लगभग 150 मंदिर हैं, उन्होंने कहा कि काशी में रहने वाले हर तमिल परिवार का एक शिवालय (शिव मंदिर) है.


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काशी के तमिल घरों में शिवालय

ऐसा ही एक परिवार अयाचक राम शास्त्री का है. माना जाता है कि तिरुनेलवेली जिले के एक गांव, जिसे मौजूदा समय में पट्टामदई नाम से जाना जाता है, में एक तपस्वी रहा करता था. वह अपना घर-बार छोड़कर काशी आ गया और उन्होंने वर्तमान काशी के हनुमान घाट में भजनमठ की स्थापना की थी.

शास्त्री के परिवार का कहना है कि उनकी सात पीढ़ियां पिछले 200 साल से काशी में रह रही हैं.

राम शास्त्री की पांचवीं पीढ़ी के वंशज कल्याणी शास्त्री ने कहा, ‘अमरनाथ, वैष्णो देवी, गंगोत्री, यमुनोत्री आदि में 12 सालों तक तपस्या करने के बाद, हमारे पूर्वज अयाचक राम शास्त्री काशी पहुंचे थे. वह 360 बाणलिंग (नर्मदा से शिवलिंग) और लगभग 12-13 शाल लेकर आए थे. लिग्राम (विष्णु से जुड़े पत्थर), जो संभवतः तिरुनेलवेली में हमारे मूल स्थान से लाए गए हैं.’

कल्याणी के भाई राज काशीनाथ शास्त्री ने दिप्रिंट को बताया कि राम शास्त्री और उनके वंशज काशीनाथ शास्त्री, रामकृष्ण शास्त्री और राजगोपाल शास्त्री ने कविताओं का एक संग्रह लिखा है. इसमें से ज्यादातर संस्कृत में और कुछ गाने तमिल थे, लेकिन इन्हें देवनागरी में प्रकाशित किया गया. इन गीतों को परिवार ने 1992 में श्रीमद्भागवत कीर्तन माला के रूप में प्रकाशित किया था.

अब भी परिवार भजन गाता रहता है, लेकिन अब उतनी भीड़ नहीं जुटती है. क्योंकि युवा पीढ़ी अपने काम और समय की कमी के कारण नहीं आ पा रही है.

संतों ने ही नहीं बल्कि दक्षिण भारतीय कवि-संगीतकारों ने भी काशी में मंदिरों के रूप में अपने निशान छोड़े हैं. उनमें से एक प्रसिद्ध कर्नाटक संगीतकार, कवि, संगीतकार और वीणा वादक मुथुस्वामी दीक्षितार के पूजा स्थल पर स्थित चक्र लिंगेश्वर मंदिर है. कवि लगभग 200 साल पहले अपने गुरु के साथ काशी आए थे.

ए. केदार महादेवन का परिवार पिछले 30 सालों से मंदिर की देखभाल कर रहा है. उन्होंने बताया, ‘दीक्षितार जो कर्नाटक संगीत के स्तंभों में से एक हैं, कुछ समय के लिए यहां रुके थे. उन्होंने अपने गुरु चिदंबरनाथ योगी के साथ श्री चक्र की प्रार्थना की. मंदिर लगभग 225 साल पुराना है और यहीं पर उन्हें देवी सरस्वती की कृपा मिली थी और यहां गंगा में स्नान करते समय एक वीणा उनके कंधे पर आ गिरी थी. दक्षिण लौटने के बाद उन्हें कर्नाटक संगीत में पहचान बनाई थी.’

संस्कृत और तमिल का कालातीत बंधन

तमिल समुदाय और काशी के बीच का कभी न मिटने वाला संबंध यहां रहने वाले लोगों के साथ बातचीत में नजर आता है. शोरूम मालिकों से लेकर टैक्सी चालकों तक को कुछ-कुछ तमिल शब्दों का इस्तेमाल करते हुए सुना जा सकता है.

जैसे ही आप हरिश्चंद्र घाट पर तमिल मोहल्ले में पहुंचेंगे ‘होटल तमिलनाडु’, ‘तिरुपति बालाजी’ मंदिर, मद्रास कैफे, आदि के नाम से कई रेस्टोरेंट आपको मिल जाएंगे. यहां की दीवारें एक तमिल अहसास देती नजर आएंगी. मंदिरों और घरों के कई नेमप्लेट हिंदी के साथ-साथ तमिल में भी लिखे मिल जाएंगे.

हरिश्चंद्र घाट पर एक साड़ी शोरूम के मालिक नटराज राव ने दिप्रिंट को बताया कि चूंकि तमिल समुदाय के हजारों लोग हर साल काशी की यात्रा करते हैं. इनमें से कुछ या तो वो काशी विश्वनाथ मंदिर के दर्शन के लिए आते हैं या फिर अपने माता-पिता की मृत्यु के बाद की रस्मों के निभाने के लिए. काशी के निवासी रोजमर्रा के जीवन में थोड़े बहुत तमिल शब्दों का इस्तेमाल करते रहते है.

उन्होंने अपनी परंपराओं को अभी तक नहीं छोड़ा है. काशी में रहने वाले तमिल समुदाय के लोग हिंदी में बिना अटके बात करते हैं. और उनमें से कई बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में विद्वान हैं.

मंदिरों और मठों के अलावा, एक और चीज है जिस पर बहस चलती रहती है कि पहले क्या आया- संस्कृत या तमिल. इस बात को लेकर अक्सर स्थानीय पुजारियों के बीच चर्चा होती रहती है. जो या तो संस्कृत को सबसे पुरानी भाषा कहते हैं या फिर इस मुद्दे पर किसी भी तरह के विवाद में नहीं पड़ना चाहते.

काशी में रहने वाले एक प्रसिद्ध तमिल पुजारी नारायण घनपति कहते हैं, ‘संस्कृत को देव-भाषा (देवताओं की भाषा) माना जाता है. संस्कृत सबसे पुरानी भाषा है और अन्य सभी भाषाओं की उत्पत्ति इसी से हुई है और इसलिए वेद संस्कृत में लिखे गए हैं. अगर कोई ऐसी भाषा है जो संस्कृत जितनी पुरानी है, तो वह तमिल भाषा है.’

घनपति ने कहा कि ‘भाषा सिर्फ लिखित पाठ के बारे में नहीं है बल्कि बोले गए शब्दों के बारे में भी है. संस्कृत देवताओं की बोली जाने वाली भाषा के रूप में अस्तित्व में थी. तमिल भी बहुत पुरानी भाषा है. इस मसले पर बहस की जरूरत नहीं है.’

वहीं कुछ के लिए इस तरह की बहस एक ही मां से पैदा हुई दो बहनों के बीच तुलना करने जैसी है.

काशी के भारत कला भवन से सेवानिवृत्त हुए राधाकृष्ण गणेशन ने कहा कि संस्कृत और तमिल का आपस में संबंध है. ‘देव-भाषा का अर्थ है कि इस भाषा की उत्पत्ति कैसे हुई और इसे किसने बनाया, इसकी किसी को जानकारी नहीं है. लेकिन तमिल भाषा को अगस्त्य ऋषि की रचना माना जाता है. जहां तक संबंध की बात है, तमिल में कई संस्कृत शब्द हैं जिनका इस्तेमाल किया जाता है. इनके साहित्य बहुत करीब हैं. यह काशी और दक्षिण भारत के बीच संबंध का एक और कारण है.

लेकिन यहां लगभग कोई भी इस बात पर दांव लगाने को तैयार नहीं है कि तमिल संस्कृत से पुरानी है.

अनुवाद: संघप्रिया मौर्या

संपादन: इन्द्रजीत

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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