(यह लेख द एसोसिएटेड प्रेस, स्टेनली सेंटर फॉर पीस एंड सिक्यूरिटी एवं प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया की सहभागिता वाले भारतीय जलवायु पत्रकारिता कार्यक्रम के तहत तैयार की गई श्रृंखला का हिस्सा है।)
(उज़्मी अतहर)
नयी दिल्ली, 21 नवंबर (भाषा/एपी) दिल्ली के पास खेतों में काम करने वाली मंजू देवी को पिछले साल दो महीने तक असहनीय पीड़ा झेलनी पड़ी जिस वजह से उन्हें अपने काम से दूर रहना पड़ा। उनके कामों में धान की फसल के लिए घंटों कमर तक पानी में खड़े रहना, भीषण गर्मी में भारी बोझ उठाना और कीटनाशक दवाओं का छिड़काव करना शामिल हैं।
देवी (56) का दर्द जब बर्दाश्त से बिल्कुल बाहर हो गया तो उन्हें अस्पताल ले जाया गया। जांच के बाद डॉक्टरों ने कहा कि वह ‘यूट्रस प्रोलैप्स’ (बच्चेदानी का बाहर आना) से पीड़ित हैं और उन्हें इसके लिए ऑपरेशन कराना होगा।
लेकिन उन्होंने अपनी बीमारी के बारे में अपने परिवार से एक शब्द नहीं कहा, क्योंकि ‘महिलाओं की बीमारी’ पर चर्चा करने को सामाजिक तौर पर सही नहीं समझता जाता।
उन्होंने कहा, “मैंने महीनों तक असहनीय दर्द सहा। इसके बारे में सार्वजनिक रूप से बोलने से डरती थी। हमें बढ़ती गर्मी की कीमत का एहसास कराने के लिए किसी सर्जिकल प्रक्रिया की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए।” उनके साथ अन्य महिलाएं भी थीं और वे भी ऐसी ही पीड़ा से गुज़री थीं।
संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व वाला वार्षिक जलवायु शिखर सम्मेलन इस महीने के अंत में दुबई में आयोजित होने वाला है जिसे कॉप के नाम से जाना जाता है। कार्यकर्ता नीति निर्माताओं से महिलाओं और लड़कियों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव पर प्रतिक्रिया देने का आग्रह कर रहे हैं, खासकर वहां, जहां गरीबी उन्हें अधिक संवेदनशील बनाती है।
उनकी सिफारिशों में महिलाओं के लिए भूमि अधिकार सुरक्षित करना, महिला सहकारी समितियों को बढ़ावा देना और जलवायु नीति विकसित करने में महिलाओं को नेतृत्व करने के लिए प्रोत्साहित करना शामिल है।
उनका यह भी सुझाव है कि देश- खासकर भारत जैसे विकासशील देश – जलवायु नीतियों में लैंगिक समानता सुनिश्चित करने के लिए अपने बजट में अधिक राशि आवंटित करने को प्रतिबद्धता दें।
सितंबर में दिल्ली में हुई जी20 बैठक में शामिल हुए नेताओं ने समस्या को स्वीकार किया था और लैंगिक समानता के साथ जलवायु कार्रवाई में तेजी लाने का आह्वान किया था।
देवी दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के करीब सात हजार की आबादी वाले गांव सियारौल में खेतिहर मजदूर हैं।
गैर-लाभकारी संस्था ‘ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया’ के लिए लैंगिक मुद्दों पर नज़र रखने वाली सीमा भास्करन ने कहा कि बच्चेदानी का बाहर आना और जलवायु परिवर्तन जैसी घटनाओं के बीच के संबंध अप्रत्यक्ष लेकिन अहम हैं।
उन्होंने कहा कि जलवायु परिवर्तन सीधे तौर पर बच्चेदानी के बाहर आने का कारण नहीं है, लेकिन यह स्वास्थ्य संबंधी जटिलताओं को बढ़ाता है जिससे महिलाएं ऐसे स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाती हैं।
नानू गांव की 62 वर्षीय खेतिहर मजदूर सविता सिंह का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण उन्हें अपने खेत में अधिक कीटनाशकों का इस्तेमाल करना पड़ा, जिससे उनकी अंगुली में रसायन की वजह से संक्रमण हो गया और उसे अगस्त 2022 में काटना पड़ा।
जलवायु पैटर्न में बदलाव और कीटों के हमलों में वृद्धि के कारण धान और गेहूं की पैदावार में गिरावट आई तो सिंह के पति ने कीटनाशकों के उपयोग को बढ़ाने का फैसला किया। हालांकि सिंह ने विरोध किया लेकिन उन्हें अपने पति का फैसला मानना पड़ा।
उत्तर प्रदेश के एक अन्य गांव पिलखाना में 22 वर्षीय दिहाड़ी मजदूर बबीता कुमारी के यहां 2021 में मृत बच्चा पैदा हुआ और इसके लिए वह भीषण गर्मी में लंबे समय तक ईंट भट्टे पर काम करने के दौरान भारी वजन उठाने को जिम्मेदार मानती हैं।
कुमारी अपने पति के साथ अस्थायी शिविर में रहती हैं। उन्होंने कहा, “मेरी मां और उनकी मां सभी ने जीवन भर ईंट भट्टों में काम किया है, लेकिन गर्मी का इतना बुरा हाल नहीं था। लेकिन पिछले छह-सात वर्षों से स्थिति बदतर हो गई है और गर्मी सहन करना असहनीय हो गया है लेकिन हमारे पास इसे सहने के अलावा क्या विकल्प है।”
वर्ष 2021-22 के लिए सरकारी श्रम बल सर्वेक्षण में पता चला कि कृषि क्षेत्र में काम करने वाले कुल लोगों में 75 प्रतिशत महिलाएं हैं। सरकारी कृषि जनगणना के अनुसार, केवल 14 प्रतिशत कृषि भूमि का स्वामित्व महिलाओं के पास है।
भाषा
नोमान अविनाश
अविनाश
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