(क्रिस्टोफर ब्रूस, अर्थशास्त्र के प्रोफेसर एमेरिटस,कैलगैरी विश्वविद्यालय)
टोरंटो, 17 जून (द कन्वरसेशन) कोविड-19 महामारी हमारे लिए एक अनिवार्य सबक यह दे गई कि हम उस स्तर के संकट से निपटने के मामले मे कितने कम तैयार हैं।
स्वाभाविक है कि नेताओं ने भविष्य में ऐसी स्थिति से निपटने के लिए बेहतर रणनीति बनाने का वादा किया है लेकिन अब तक यह वादा पूरा नहीं हुआ है।
हालांकि, आश्चर्यजक रूप से एक अपवाद अलबर्टा प्रांत (कनाडा) से आया है। जनवरी में यूनाइटेड कंजर्वेटिव पार्टी (यूसीपी) की सरकार ने पार्टी संस्थापक प्रिस्टन मैननिंग के नेतृत्व में उच्च स्तर के विशेषज्ञों की समिति यह जांच करने के लिए बनाई है कि ‘‘क्या कोविड-19 से निपटने की कनाडा की रणनीति से सबक सीखा जा सकता है ताकि भविष्य की आपात स्थितियों से बेहतर तरीके से निपटा जा सके।’’
यूसीपी पार्टी ने दोबारा चुनाव में जीत दर्ज की है और ऐसे में उम्मीद की जा रही है कि मैननिंग समिति अपनी अंतिम रिपोर्ट जल्द जारी करेगी तथा सरकार उसके निष्कर्षों को गंभीरता से लेगी।
गहराई से अवलोकन
आलोचक आशंका जता सकते हैं कि मैननिंग जीवन पर्यंत रूढ़िवादी रहे हैं और उनके द्वारा पेश रिपोर्ट महामारी के दौरान यूसीपी के कार्यों को न्यायोचित ठहराने से ज्यादा कुछ नहीं होगी। लेकिन शुरुआत में लीक समिति की रिपोर्ट से संकेत मिलता है कि वे जिस तरह से नीतियों का निर्माण किया गया उसका गहराई से अवलोकन कर सकते हैं।
लीक हुई रिपोर्ट से खुलासा हुआ है कि अलबर्टा के लोगों से सुझाव मांगा गया कि सरकार भविष्य में ऐसे स्वास्थ्य संकटों से कैसे निपटे तो उन्होंने अधिक चिकित्सा और वैज्ञानिकों की राय पर भरोसा करने का समर्थन किया और नेताओं की राय को कम तरजीह देने की बात कही।
लोगों की इस राय ने समिति के समक्ष चुनौती पेश की है जिससे लंबे समय से राजनीतिक वैज्ञानिक और अर्थशास्त्री जुड़े रहे हैं कि क्या विज्ञान हमें बता सकता है कि सबसे बेहतरीन लोक नीति क्या है? और समिति संभव है कि जल्द ही इसका उत्तर ‘न’ में दे। इसकी वजह अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में देखी जा सकती है जिसे लोगों की पसंद का सिद्धांत कहा जाता है। यह तर्क देता है कि लोक नीति के संबंध में लिए जाने वाले फैसलों को दो तत्वों – तथ्य और मनोवैज्ञानिक- में बांटा जा सकता है और इसका निष्कर्ष है कि विज्ञान हमें मनोविज्ञान के बारे में बहुत कम बताता है।
कोविड-19 के संदर्भ में तथ्यात्मक तत्व में बीमारी के फैलने संबंधी सूचना, उसके संपर्क में आने वालों पर पड़ने वाले प्रभाव और मास्क व टीकाकरण का संक्रमण दर पर प्रभाव शामिल है।
मनोविज्ञान के तत्व में संक्रमण के खतरे को लेकर लोक मान्यता, बीमारी और मौत के खतरे को स्वीकार करने की इच्छा और व्यक्तिगत पाबंदियों को स्वीकार करने की कीमत शामिल है।
इस अंतर में सबसे अहम है कि अकसर नीति को लेकर तथ्यात्मक तत्व संबंधी विश्वसनीय वैज्ञानिक सूचनाएं उपलब्ध होती हैं लेकिन मनोवैज्ञानिक तत्व के बारे में यह नहीं कहा जा सकता है।
भावनाओं की कीमत को कैसे आंका जाए?
उदाहरण के लिए कैसे बीमारी फैलती है और उसके विभिन्न इलाज का प्रभाव क्या है उसको लेकर वैज्ञानिक सबूत है लेकिन कोई भरोसेमंद तरीका कोविड-19 के भावनात्मक प्रभाव का आकलन करने के लिए नहीं है। न ही व्यक्ति की बीमारी से मौत होने पर उसकी कीमत या स्वास्थ्य नीति के तहत व्यक्तिगत पाबंदियों पर लोगों के प्रभाव का पता लगाने का विश्वसनीय तरीका है।
इन मामलों के वैज्ञानिक समाज के समक्ष उपलब्ध विकल्पों की पहचान करने में सहायक हो सकते हैं लेकिन यह तय नहीं कर सकते कि कौन सा विकल्प अलग-अलग परिस्थितियों और अलग-अलग लोगों के लिए सबसे मुफीद होगा।
महामारी की शुरुआत में सरकार ने फैसला किया कि किस समूह को सबसे पहले टीका मिलेगा। उदाहरण के लिए युवा वयस्कों के मुकाबले वरिष्ठ नागरिकों को? स्वास्थ्यकर्मियों को पुलिस, शिक्षक या सुपर मार्केट कर्मियों से पहले? ‘विज्ञान’ के पास इन सवालों का जवाब नहीं है जिसमें मूल्य आधारित फैसले किए जाते हैं। इसके उलट नेता सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारकों के आधार पर फैसला लेने को मजबूर होते हैं और इनमें से किसी का आकलन तथ्यों के आधार पर नहीं किया जा सकता।
इसी प्रकार, विज्ञान अभिभावकों को यह फैसला लेने में बहुत कम मनोवैज्ञानिक सहायता करता है कि उनके बच्चों को कोविड-19 से बचाव के लिए टीका दिया जाए या नहीं।
बच्चों में टीकाकरण की कम दर
अलबर्टा में अभिभावकों द्वारा टीकाकरण कराए जाने के फैसले में वैज्ञानिकों द्वारा बताए गए तथ्य आधारित लाभ पर मनोवैज्ञानिक कीमत भारी पड़ी। अप्रैल 2023 तक केवल 9.7 प्रतिशत अभिभावकों ने ही अपने एक से चार साल तक के बच्चों को कोविड-19 से बचाव के लिए टीके की कम से कम एक खुराक दिलाई थी जबकि पूरी आबादी में यह दर 80 प्रतिशत है।
इससे संकेत मिलता है कि मैननिंग समिति द्वारा यह सुझाव दिए जाने की बहुत कम संभावना है कि वह केवल वैज्ञानिक सबूतों के आधार पर जन नीति बनाने की सिफारिश करे। विज्ञान के पास मनोवैज्ञानिक कीमत और लाभ नापने का कोई तरीका नहीं है। इसका उत्तर यह नहीं दिया जा सकता कि स्वास्थ्य खतरे को कम करने के बदले जनता में पृथकवास के कदम की स्वीकार्यता का स्तर क्या है? अग्रिम मोर्चे पर काम करने वालों की जिंदगी के मुकाबले वरिष्ठ नागरिकों की जांच की कीमत कैसे अधिक है?
सार्वजनिक नीति कैसे बनाई जानी चाहिए, इस बारे में बहस में सार्थक योगदान देने का एकमात्र तरीका यह है कि इस सवाल का समाधान किया जाए कि नीति के मनोवैज्ञानिक प्रभावों को कैसे मापा जा सकता है।
(द कन्वरसेशन) धीरज नेत्रपाल
नेत्रपाल
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