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Saturday, 20 April, 2024
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जब मतभेद हों तो कैसे निपटें, चुनाव आयोग को सुप्रीम कोर्ट से सीखना चाहिए

अशोक लवासा ने चुनाव आयोग की बैठकों से तब तक के लिए खुद को अलग कर लिया है, जब तक कि आयोग उनकी विसम्मति वाली राय को सार्वजनिक करने की मांग को मान नही लेता हो.

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इतिहास में 2019 के लोकसभा चुनाव को भारतीय चुनाव आयोग की बेदाग प्रतिष्ठा को गंभीर नुकसान पहुंचाने वाले अवसर के रूप में दर्ज किया जाएगा. ताज़ा विवाद चुनाव आयुक्त अशोक लवासा के प्रतिवाद का है. लवासा चाहते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को क्लीन चिट दिए जाने के मामलों में उनकी असहमतियां आयोग के रिकार्ड में दर्ज हों और उन्हें सार्वजनिक किया जाए.

इसे लेकर एक अच्छी बात ये है कि विवादों की वजह से अब चुनाव आयोग में सुधारों की ज़रूरत पर सार्वजनिक बहसें होंगी. जहां तक बात मतभेद की है, तो इस संदर्भ में चुनाव आयोग को सुप्रीम कोर्ट से आगे देखने की आवश्यकता नहीं है, जहां न्यायाधीशों ने विसम्मति वाले ऐतिहासिक फैसले दिए हैं.

चुनाव आयोग में मतभेद

अशोक लवासा ने चुनाव आयोग की बैठकों से तब तक के लिए खुद को अलग कर लिया है, जब तक कि आयोग उनकी विसम्मति वाली राय को सार्वजनिक करने की मांग को मान नही लेता हो. मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा ने लवासा के तीन पत्रों और आयोग की बैठकों से खुद को अलग करने के उनके कदम को अधिक महत्व नहीं देते हुए कहा है कि ‘चुनाव आयुक्तों से एक-दूसरे का क्लोन होने की अपेक्षा नहीं की जाती है.’ उनका ये कहना सही है: आयुक्तों को असहमतियों के लिए तैयार रहना चाहिए. पर उनका इस बारे में गोपनीयता बरतना गलत है. असहमतियों की गुंजाइश रखना भर ही सही नहीं है, बल्कि उन असहमतियों का सार्वजनिक रिकॉर्ड में शामिल किया जाना भी सही है.

चुनाव आयोग के कानूनी प्रकोष्ठ की राय में आदर्श आचार संहिता से जुड़े फैसले कार्यकारी प्रकृति के होते हैं, ना कि अर्द्ध-न्यायिक कि असहमतियों को अलग से रिकॉर्ड रखना पड़े. जबकि अशोक लवासा की दलील है कि चुनाव आयोग संविधान के जिस अनुच्छेद 324 से अपनी शक्तियां पाता है, उसके अनुसार आयोग की कार्यवाहियों पर भी नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत लागू होते हैं.


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बहस में हस्तक्षेप करते हुए दो पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्तों ने कहा है कि असहमति वाली राय को फाइलों में दर्ज किया जाना चाहिए और शिकायतकर्ता को इसके बारे में जानकारी मांगने का अधिकार है. उनका ये भी मानना है कि जैसा कि सुप्रीम कोर्ट में होता है, चुनाव आयोग के आदेशों में असहमति के स्वरों को भी इसकी वेबसाइट पर अपलोड किया जाना चाहिए.
‘न्याय ना सिर्फ होना चाहिए, बल्कि होता दिखना भी चाहिए.’

सुप्रीम कोर्ट का उदाहरण

चुनाव आयोग की 1950 में एक-सदस्यीय संगठन के रूप में स्थापना हुई थी, और 1989 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने इसे इस सोच के साथ बहुसदस्यीय बनाया था कि असहमति की गुंजाइश रख कर आयोग को मज़बूत बनाया जा सके.

चुनाव आयोग के आयुक्त दर्जे और हैसियत में सुप्रीम कोर्ट के जजों की बराबरी करते हैं. इसलिए आयोग को सुप्रीम कोर्ट से सीख लेनी चाहिए, जिसका विसम्मति और अल्पमत की राय को दर्ज करने का एक समृद्ध इतिहास रहा है. जम्मू और कश्मीर उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश सैयद मुर्तज़ा अली, तथा भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीशों मोहम्मद हिदायतुल्ला और अमल कुमार सरकार जैसे जज भिन्न दृष्टिकोणों, विचारों और टिप्पणियों वाली विसम्मतियों को खुलकर प्रकट करने के लिए याद किए जाते हैं.

हाल के उदाहरणों की बात की जाए तो निजता के अधिकार पर सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले में दर्ज न्यायमूर्ति डी.वाय. चंद्रचूड़ की असहमति एक उत्कृष्ट पाठ है जिसे अवश्य पढ़ा जाना चाहिए.

शीर्ष अदालत के फैसलों में असहमति के स्वरों ने ना सिर्फ सार्वजनिक बहसों में आवश्यक पारदर्शिता के आयाम को जोड़ा है, बल्कि ये अनुवर्ती फैसलों के लिए नजीर और न्यायशास्त्र के विकास की बुनियाद भी साबित हुए हैं.

असहमति का उद्देश्य ‘असहमति का मतलब है लोकतंत्र की मौजूदगी… यदि असहमति की गुंजाइश नहीं रखी जाती है, तो इसका मतलब होगा न्यायपालिका स्वतंत्र नहीं है.’ – न्यायमूर्ति एस.बी. सिन्हा, सुप्रीम कोर्ट.

असहमति का उद्देश्य मात्र ‘असहमति दर्ज कराने के लिए असहमति’ से कहीं अधिक बड़ा है. और, लोकतंत्र में असहमति को आमसहमति से कहीं ज़्यादा संरक्षण दिए जाने की ज़रूरत है. संवैधानिक संस्थाओं की आंतरिक प्रक्रिया रहस्यों के आवरण में नहीं रहनी चाहिए. उनके निर्णय लेने की प्रक्रिया अव्यवस्थित, तथा असहमतियों और असमान विचारों से परिपूर्ण होती है. पर यही तो बहुसदस्यीय संस्था स्थापित करने का मकसद होता है, सुप्रीम कोर्ट के किसी बहुसदस्यीय खंडपीठ की तरह. यदि हर कोई हां में हां मिलाने वाला हो जाए तो हम कथित सहमतियों के बावजूद नुकसान में रहेंगे.

बेशक चुनाव आयोग में बहुमत की राय ही प्रभावी रहेगी, पर असहमति को भी कानून के मर्म के समक्ष एक अपील की तरह लिया जाता है, और ये किसी भी आदेश का अभिन्न हिस्सा होता है. वास्तव में, चुनाव आयोग अधिनियम, 1991 के खंड 10 में ‘काम का निपटान’ शीर्षक के तहत ये कहते हुए असहमति की गुंजाइश रखी गई है कि ‘यदि मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य आयुक्तों में किसी मुद्दे पर मतभेद होता है, तो उस मुद्दे को बहुमत की राय के अनुरूप निपटाया जाएगा.’

पर जब कोई फैसला आमसहमित से नहीं हुआ हो तो हर नागरिक को ये जानने का अधिकार है कि आखिर असहमति दर्ज कराने वाला सदस्य किस आधार पर निर्णायक संस्था की मुखर आलोचना कर रहा है. मतदाता स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के हकदार हैं, जिसमें अनिवार्यत: चुनाव आयोग का पारदर्शी कामकाज भी शामिल है.


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साथ ही, किसी व्यक्ति को राष्ट्रीय हित के किसी मुद्दे पर अपनी राय दर्ज करने से रोकना संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) का उल्लंघन है, जिसमें कि नि:संदेह असहमति जताने का अधिकार भी शामिल है.

मुझे यहां एक तनावपूर्ण पृष्ठभूमि में कुशलतापूर्वक कराया गया 1991 का चुनाव याद आ रहा है, जब चुनाव अभियान पर सांप्रदायिक एवं जातीय संघर्ष हावी रहे थे. तब टी.एन. शेषन के नेतृत्व में चुनाव आयोग सख्त, और उससे भी ज़्यादा अहम, निष्पक्ष साबित हुआ था.

चुनाव आयोग के सदस्य ‘असहमति’ और ‘संबंधित विषयों’ पर चर्चा के लिए आज दोबारा बैठक करेंगे. वर्तमान संदर्भ में इस बात का उतना महत्व नहीं है कि आप अशोक लवासा की असहमति से इत्तेफाक रखते हैं कि नहीं, ज़्यादा अहमियत इस बात की है कि ऐस असहमतियों को सार्वजनिक रिकॉर्ड में शामिल किया जाना चाहिए. यहां दांव पर है भारत की शीर्ष निर्वाचन संस्था के भीतर मतभेद की प्रकृति और भविष्य के लिए इसका प्रतिमान.

(लेखक एक प्रशिक्षित वकील और कांग्रेस के प्रवक्ता हैं. ये उनके निजी विचार हैं. वे @vinayakdalmia से ट्वीट करते हैं.)

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