scorecardresearch
Tuesday, 23 April, 2024
होम2019 लोकसभा चुनावदो बड़े दलों को छोड़ आखिर क्यों क्षेत्रीय दल लगा रहे हैं महिला प्रत्याशियों पर दांव

दो बड़े दलों को छोड़ आखिर क्यों क्षेत्रीय दल लगा रहे हैं महिला प्रत्याशियों पर दांव

टीएमसी और बीजद ने लोकसभा चुनाव में महिला प्रत्याशियों पर दांव खेल रही है. बीजद में 7 महिलाएं और टीएमसी ने 17 महिलाएं उतारने का निर्णय लिया है.

Text Size:

नई दिल्ली : ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल की कुल 42 लोकसभा सीटों पर तृणमूल कांग्रेस की तरफ से 40.5 प्रतिशत यानी 17 महिला उम्मीदवार उतारने का निर्णय लिया है. वहीं पश्चिम बंगाल के निकटवर्ती राज्य उड़ीसा में बीजू जनता दल (बीजद) के सुप्रीमो नवीन पटनायक ने अपनी पार्टी से 21 उम्मीदवारों में से 7 महिलाएं यानी 33 प्रतिशत महिला उम्मीदवारी का ऐलान किया है. 2019 के लोकसभा चुनाव की घोषणा होते ही दोनों पार्टियों चुनावी मौसम में महिलाओं को खास तवज्जो दी है.

तृणमूल कांग्रेस ने बांग्ला अभिनेत्रियों नुसरत जहां, शताब्दी रॉय, मिमि चक्रवर्ती समेत मुनमुन सेन को भी टिकट दिया है. साथ ही, अपने आधिकारिक ट्विटर हैंडल से लोकसभा चुनाव की महिला कैंडिडेट्स की तस्वीरें भी जारी की हैं.

8 मार्च को अंतराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर ममता बनर्जी ने ट्वीट किया था कि 16वीं लोकसभा यानी 2014 के बाद बनी लोकसभा में तृणमूल कांग्रेस के 34 सांसदों में से 12 यानी 35 प्रतिशत सांसद महिलाएं हैं. वहीं पूरी लोकसभा में मात्र 61 यानी 11 प्रतिशत महिलाएं ही 2014 में सांसद बन पाई थीं. वहीं दिसंबर 2018 में जब लोकसभा में ट्रिपल तलाक बिल पर बहस हो रही थी, मीडिया से बात करते हुए ममता बनर्जी ने कहा कि सारी पार्टियों को लोकसभा और विधानसभा में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने पर राजी हो जाना चाहिए.

नहीं बन सकी है सदन में 33 फीसदी महिला आरक्षण दिए जाने पर बात

गौरतलब है कि आखिरी बार 2008 में तत्कालीन यूपीए सरकार ने महिला आरक्षण पर बिल पेश किया था. जो 2010 में राज्यसभा से पास हुआ पर लोकसभा में इस पर वोटिंग ही नहीं हुई. 2014 में लोकसभा भंग होने के बाद इस तरह के बिल पर चर्चा फिर नहीं हुई. हालांकि उप-राष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने सारी पार्टियों से अपील की थी कि महिला आरक्षण के बारे में सोचा जाए. उन्होंने पंचायतों और नगर पालिका में औरतों की सफल भागीदारी का भी ज़िक्र किया था.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

अगर 2010 की बात करें तो कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी ने चाहा था कि उस साल 8 मार्च यानी महिला दिवस पर ही महिला आरक्षण विधेयक पास करा लिया जाए. पर राज्यसभा में बिल पास होने से कुछ दिन पहले राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी और जनता दल यूनाइटेड के नेताओं ने खूब हंगामा मचाया था. बिहार के राजनीति प्रसाद ने तो बिल के टुकड़े-टुकड़े कर दिये थे. तत्कालीन उप-राष्ट्रपति और राज्यसभा के पीठासीन सभापति हामिद अंसारी के सामने रखे दो माइक तोड़ दिए गये. उनका पेन स्टैंड भी उखाड़ दिया गया. दस सांसदों ने मिलकर ये हंगामा किया था. तत्कालीन सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने सरकार से समर्थन वापस लेने की धमकी देते हुए कहा था कि वो लक्ष्मण रेखा पार कर लेंगे.

2010 में इस बिल के राज्यसभा से पास होने के बाद कांग्रेस की सोनिया गांधी, भाजपा की सुषमा स्वराज और कम्युनिस्ट पार्टी की वृंदा करात तीनों नेताओं ने एक साथ फोटो खिंचवाई थी. तब कहा गया था कि ये तीनों महिलाएं इस बिल का विरोध करने वाले तीन मुख्य पुरुषों मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और शरद यादव को पटखनी दी है.

मई 2008 में कानून मंत्री एच आर भारद्वाज ने जब बिल पेश करना चाहा तो समाजवादी पार्टी के सांसद अबू असीम आज़मी और उनके साथी सांसदों ने भारद्वाज के हाथ से पेपर छीनना चाहा. तत्कालीन महिला और बाल विकास मंत्री रेणुका चौधरी ने आज़मी को धक्का देते हुए उनका प्रयास विफल कर दिया. भारद्वाज को इस तरह के हमले से बचाने के लिए दो महिला मंत्री कुमारी शैलजा और अंबिका सोनी के बीच में बैठाया गया. वहीं दो कांग्रेसी महिला सांसद जयंती नटराजन और अलका बलराम क्षत्रिय ने लगातार सुनिश्चित किया कि समाजवादी पार्टी के सदस्य भारद्वाज के पास नहीं आने पाएं.

12 सितंबर 1996 को तत्कालीन एच डी देवेगौड़ा की सरकार में महिला आरक्षण विधेयक सबसे पहली बार लाया गया था. तब से ही इस विधेयक को लेकर छीना-झपटी जारी रही है. द हिंदू के मुताबिक 1997 में तत्कालीन जदयू सांसद शरद यादव ने कहा था कि आपको क्या लगता है कि छोटे बालों वाली ये औरतें हमारी औरतों के लिए बोलेंगी?

देवेगौड़ा की सरकार में लोकसभा ने बिल को पारित नहीं किया. तब इसे गीता मुखर्जी की अध्यक्षता वाली जॉइंट पार्लियामेंट्री कमिटी को रेफर किया गया. अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने भी इस बिल को 1998 में संसद में पेश किया था. द हिंदू के मुताबिक तब भी राष्ट्रीय जनता दल के सांसद सुरेंद्र प्रसाद यादव ने लोकसभा अध्यक्ष जीएमसी बालयोगी के हाथ से छीनकर बिल को टुकड़े टुकड़े कर दिया था. फिर वाजपेयी सरकार ने इस बिल को 1999, 2002 और 2003 में भी पेश किया. पर ये बिल पास नहीं हो सका. जिस तरीके से ये बिल संसद में फाड़ा गया है ये कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि एक  ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ महिलाओं के खिलाफ संसद में सक्रिय है.

ये दिलचस्प रहा है कि कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार के दौरान भाजपा ने इस बिल को पूरा समर्थन दिया है. वहीं भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार में कांग्रेस ने इस बिल को पूरा समर्थन दिया है.

विरोध में क्षेत्रीय दल ही खड़े हुए हैं. कई बार इस बिल को लेकर क्षेत्रीय दलों के नेताओं ने आरोप लगाये कि इसके माध्यम से पिछड़े वर्ग का हक मारा जाएगा. उनका डर था कि कथित उच्च जाति की महिलाओं को ये मौका मिल जाएगा. हालांकि उन दलों ने इस पर गंभीर चर्चा नहीं की. क्योंकि जिस प्रकार से 73वें और 74वें संविधान संशोधन के द्वारा पंचायत और नगर पालिका में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण दिया गया है वो कमोबेश सफल रहा है. महिलाओं की ना सिर्फ भागीदारी बढ़ी है बल्कि उन्होंने बराबर काम भी किया है.

नवीन पटनायक और ममता बनर्जी दोनों ही क्षेत्रीय दलों के सुप्रीमो हैं. अगर ये दोनों लोग महिला आरक्षण को लेकर आगे आए हैं तो ये खुशखबरी है. ज़रूरत इस बात की है कि संसद के अगले सत्र में जो भी सरकार आए, सारे दलों को पटनायक और बनर्जी का उदाहरण देते हुए इस बिल को पास कराने की कोशिश करे.

उसके पहले भाजपा और कांग्रेस दोनों ही पार्टियां ज़्यादा से ज़्यादा महिला उम्मीदवार मैदान में उतारकर इसका संकेत दे सकती हैं.

share & View comments