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Thursday, 28 March, 2024
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नेहरू की जगह यदि मोदी भारत के पहले पीएम होते तो भारत मूर्खता विज्ञान का गढ़ बन जाता

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नरेन्द्र मोदी और उनके साथियों द्वारा नेहरू के भारत को कितना बर्बाद किया जाएगा और कितनी बर्बादियाँ अभी देखना बाकी है। एक अनुशासनहीन और बिखरे हुए विपक्ष का मतलब है कि यह सब अभी लंबे समय तक टिके रहेंगे।

पंडित जवाहरलाल नेहरू पाकिस्तान में होने वाली लोकप्रियता की प्रतियोगिता कभी भी नहीं जीत पाते क्योंकि उन्होंने हमारे देश के निर्माण का विरोध करने में अपना एड़ी से चोटी तक का जोर लगा लिया था। लेकिन वो, भारत की मौजूदा सत्तारूढ़ मंडलियों में और उन लोगों के बीच जिनकी वफादारी को वे अपने वश में रखते हैं, से ज्यादा कहीं भी बदनाम नहीं हुए|

नेहरू के खिलाफ लगाए जाने वाले आरोप अक्सर बहुत ही रोचक और लुभावने होते हैं जैसेः कि वह बहुत ही गिरे हुए और घटिया इंसान थे, उनका जन्म एक वेश्यालय में हुआ था और वे सिफलिस की मौत मरे, उन्होंने एक कैथोलिक तपस्विनी को गर्भवती कर दिया था, स्वयं को कश्मीरी पंडित होने का दावा करते थे और चुपके से प्याज खा लेते थे और 19 वर्ष की आयु से रोजाना सुबह 9 बजे शराब पी लेते थे। जैसा कि अमेरिका के कुछ समान विचारधारा वाले लोगों का कहना है कि बराक ओबामा एक छिपे हुए मुस्लिम हैं, इसी तरह समान हिन्दूवादी सोच रखने वाले कुछ लोगों का कहना है कि नेहरू के दादा, गयासुद्दीन गाजी, एक मुस्लिम कोतवाल थे जो मुगल दगबार में काम किया करते थे।

लेकिन अगर केवल अनजान इंटरनेट उपयोगकर्ता इस तरह की बातें करते तो कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन भाजपा और आरएसएस के वरिष्ठ पदाधिकारियों द्वारा नेहरू को भारतीय इतिहास के पन्नों से बाहर किया जा रहा है। 2016 में बेतवा शर्मा ने बताया कि भाजपा शासित राजस्थान में कक्षा 8 के छात्रों को अब यह नहीं सिखाया जा रहा है कि जवाहर लाल नेहरू भारत के पहले प्रधानमंत्री थे या एक हिन्दू राष्ट्रवादी नाथूराम गोडसे द्वारा महात्मा गाँधी की हत्या कर दी गई थी। नेहरू के “भाग्य के साथ प्रयास” जैसे ऐतिहासिक भाषण को तो कुछ राज्यों के पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकों से पहले ही हटा दिया गया है, जिस तरह से 11 अगस्त 1947 को जिन्ना के भाषण को जियाउल हक युग में गायब कर दिया गया था।
नेहरू के खिलाफ व्यक्तिगत विद्रोह का यह अभियान, वास्तव में धर्मनिरपेक्ष भारत की अवधारणा के खिलाफ परोक्ष रूप से एक युद्ध है। हम पाकिस्तानी एक पल के लिए भी यह नहीं सोच सकते हैं कि नेहरू ने भारत को एक बहुलवादी, उदार और समेकित राज्य बनाने की घोषणा की थी जिसकी शक्ति उसकी विविधता में परिलक्षित होती है। हमारे लिए, यह सभी लोकतंत्र का जामा पहने हिंदू बहुसंख्यकवाद को न्यायसंगत साबित करने वाले अच्छे शब्द थे। अब केवल भाजपा ने भारत को एक संदिग्ध सांप्रदायिक एजेंडे के साथ नियंत्रित किया है, कुछ पाकिस्तानियों ने यह महसूस किया है कि सदोष सांप्रदायिक एजेंडे से केवल भारत की धर्मनिरपेक्षता को नुकसान है।

लेकिन इसके बावजूद अतीत में मुसलमानों और पाकिस्तानियों ने क्या सोचा होगा या शायद अब भी सोचते हैं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की जुबान पर हमेशा नेहरू का नाम रहा है। ये दोनों भयभीत थे और इसके लिए वे उनसे नफरत करते थे। विशेष रूप से, गांधीजी की हत्या के बाद और हिंदू राष्ट्र का जोरदार विरोध करने के लिए और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) पर प्रतिबंध लगाने के लिए उन्हें कभी माफ नहीं किया गया। एक हिंदुत्व कार्यकर्ता बुद्धिमानी से लिखता है कि क्या स्वतंत्रता के बाद योग्य संघियों को नेहरू ने भारत का प्रभार सौंप दिया था, भारत को “अब तक राम राज्य प्राप्त हो गया होता”, जहाँ सौ करोड़ लोग एक दिन में एक दर्जन बार ‘हनुमान चलीसा’ का जाप करते हैं।
फिर भी, वहाँ विरोधाभास और अंतर्विरोध हैं कि हिंदुत्व बच नहीं सकता क्योंकि वह नेहरू को खत्म करना चाहता है। दक्षिणपंथियों के साथ-साथ सभी भारतीयों को अपने देश की वैज्ञानिक उपलब्धियों पर बहुत गर्व है। लेकिन एक पल के लिए यह कल्पना करें कि 1947 में जवाहरलाल नेहरू नहीं, नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री रहे होते तो आज का भारत वैज्ञानिक दृष्टि से कैसा दिख सकता था ?

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अपने असाधारण अंतरिक्ष कार्यक्रम (मंगलयान!) और शानदार तंतुक सिद्धांतकारों (अशोक सेन!) के लिए विख्यात होने के बजाय, भारत हर प्रकार के मूर्खता विज्ञान के कूड़े का एक ढ़ेर बन गया होता। मेडिकल शोध गाय के मूत्र और गाय के गोबर से बनी दवाओं पर केंद्रित होता, मयूर का ब्रह्मचर्य गंभीर जाँच के तहत होता, खगोल विज्ञान के स्थान पर ज्योतिष विज्ञान पढ़ाया जाता और वास्तविक गणित के बजाय वैदिक गणित पढ़ाई जाती। जैसे कि पाकिस्तान में, डार्विनियन विकास को धार्मिक विश्वास के लिए विधर्मिक और विनाशकारी माना जाएगा|।

भारतीय विज्ञान पर नेहरू की मोहर को दर्जनों वैज्ञानिक संस्थानों और विश्वविद्यालयों, जो उनके लिए ऋणी हैं, के रूप में भारत की लंबाई और चौड़ाई में देखा जा सकता है। भारत शायद दुनिया का एकमात्र देश है जिसका संविधान स्पष्ट रूप से “वैज्ञानिक मनोभाव” के प्रति प्रतिबद्धता की घोषणा करता है – एक जबरदस्त नेहरूवादी धारणा जेल में अपने वर्षों की कैद के दौरान तैयार की गई। संक्षेप में – पवित्र शास्त्र नहीं बल्कि केवल कारण और विज्ञान ही हमें भौतिक संसार का विश्वसनीयता ज्ञान प्रदान करते हैं।

मैं बड़े अंतर को देख सकने में सक्षम था जो नेहरु ने 2005 में सात शहरों में लगभग 40 भारतीय विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में भाषणों की एक यात्रा के दौरान अपने देश के लिए पैदा किया| नेहरु के बिना, विज्ञान के लिए विशाल और स्पर्शनीय सार्वजानिक उत्साह कभी नहीं हो सकता था| ये, एक ही शहर के भीतर कई विज्ञान संग्रहालयों और सामान्य भारतीयों के बीच बुनियादी विज्ञान की समझ का विस्तार करने वाले अनगिनत वैज्ञानिक समाजों में व्यक्त किया गया था| मुझे नहीं पता हिंदुत्व के अंतर्गत इसमें कितना बदलाव आया है| लेकिन निश्चित रूप से इस तरह के उत्साह का एक अंश भी उस समय पाकिस्तान में नहीं दिखाई देता था, और अब भी देखा नहीं जा सकता|

नेहरु को अपने सेनापतियों को गोपनीय रखने का श्रेय दिया जाना चाहिए| एक लोकतंत्र में सेना को नागरिक अधिकार के अधीनस्थ और उत्तरदायी होना चाहिए, न कि इसके विपरीत होना चाहिए| और इसलिए विभाजन के तुरंत बाद, नेहरु ने सेना प्रमुख के भव्य निवास को खाली करने और इसे प्रधानमंत्री को सौंपने का आदेश दिया| इस कदम से बड़ा प्रतीकवाद सामने आया – यह स्पष्ट रूप से कहा गया कि बॉस कौन था|

1958 में जब सीमा पार अयूब खान का तख्तापलट हुआ, तो इसने उन नियमों को जन्म दिया जिन्होंने राष्ट्रीय मामलों में भारतीय सेना की भूमिका को और भी कम कर दिया| जनरल करियप्पा, जो सेवानिवृत्त हुए थे लेकिन तख्तापलट की प्रशंसा की थी, को चुप रहने के लिए कहा गया| अधिकारी, कार्यरत या सेवानिवृत्त, सार्वजानिक मामलों और अर्थशास्त्र से सम्बंधित मामलों पर टिपण्णी करने पर कठोरता से हतोत्साहित थे – और विशेष रूप से उनके पेंशन और सेवानिवृत्ति लाभ पर| तब सेना के स्वामित्व वाले उद्यमों और व्यवसायों की कोई अवधारणा नहीं थी|

यह सब अब बदल सकता है| सेना प्रमुख बिपिन रावत, जो लड़ाई के लिए अपने प्रेम के कारण जाने जाते हैं, ने कई विदेश नीति मामलों पर स्वतंत्र रूप से टिपण्णी करके सेना की परंपरा को तोड़ दिया है – जैसे रोहिंग्या शरणार्थी समस्या, भारत को चीन के साथ डोकलाम संकट से कैसे निपटना चाहिए, और “पाकिस्तान के परमाणु बम के दिखावे” से निपटने की बात| समय बताएगा कि रावत एक अपवाद हैं या, इसके बजाय, एक नया नियम जो हस्तक्षेपी सेना का चरित्र चित्रण कर रहा है| भारतीय लोकतंत्र के लिए अशुभ रूप से, सेना प्रमुख की आलोचना को, मीडिया द्वारा राष्ट्र विरोध के रूप में वर्णित किया जा रहा है|

नेहरु के भारत को मोदी और उनके साथियों द्वारा कितना तबाह किया जायेगा, ये अभी देखना बाकी है| एक नीतिभ्रष्ट और टूटे हुए कांग्रेसी विपक्ष का मतलब है कि वे यहाँ लम्बे समय तक टिकने वाले हैं|
इस दरम्यान, दैनिक रूप से, पाकिस्तान के लिए सीमा के उस पार अपना दर्पण प्रतिबिम्ब पहचानना आसान होता जा रहा है|

लेखक लाहौर और इस्लामाबाद में भौतिक विज्ञान पढ़ाते हैं|

मूलरूप में यह लेख डान में सम्पादित हुआ था| आप यहाँ मूल लेख को पढ़ सकते हैं|

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